बारिश- एक एहसास


बारिश, उस दिन आई ऐसे आई की पता ही नहीं चला | मैं हैरान सी एक खुशनुमा एहसास लिए दौड़ती चली गयी उस आवाज़ की ओर, उस खुशबू की ओर |

वह बारिश बहुत अलग थी, अनजाने शहर में ऐसा लगा की कोई मेरा आ गया | ठंडी हवाओं ने मुझे इस कदर ख़ुशी दी की जो शायद ही मिलती है | ठण्ड तो लग रही थी पर मन कर रहा था कि उस ठण्ड को मैं अपने अन्दर समां लूँ | यूँ बहती हवा को अपने अन्दर छुपा लूँ | रोम-रोम ठिठुर रहा था पर मन कह रहा था... थोड़ी देर और |


लोहे के झरोखे के पीछे खड़ी मैं यह सोच ही रही थी कि अचानक हवा का रुख बदला और दो तीन बारिश की बूंदें मुझे चूम गयी | और बूंदें मेरी ओर आई तो मैंने उन्हें अपने आप में समेट लिया |

भीगते वृक्ष, भीगती गाड़ियाँ, मन कर रहा था मैं भी भीग जाऊं | पर आँखें देख कर ही सारा नशा पी रही थी |

एक अमरूद अपने पेड़ से बिछड़ा हुआ मेरे सामने ही एक दीवार पर पड़ा था | अकेला | भीग रहा था मज़े से, न ज़माने की फिक्र, न ठण्ड की और न ही अकेले पन की | बस लुत्फ उठा रहा था उस बारिश का जो यूँ बरस रही थी मानो आज सारे गम, सारा अकेलापन और दुविधा अपने साथ दूर ले जाएगी |

लिखते-लिखते किताब भी गीली हो गयी थी मेरी, क्या करती दूर जाने का मन ही नहीं कर रहा था उस बारिश से | 

टप...टप...टप आवाज़ हर संगीत से मधुर लग रही थी | गरजते बादल भी अपनी बात कई ढंग से कह रहे थे |

ऐसा क्या ख़ास था उस बारिश में ? दूर ऊपर बादल से बिछड़ कर एक बूँद जब धरती पर गिरती है तो हमारे दिल को क्यों छू जाती है? क्यों इतनी ख़ुशी देती है? वह तो अपने बादल से बिछड़ के आई है न, फिर क्यों?


प्रकृति भी बड़ी निर्दयी है.... प्रकृति भी कितनी प्यारी है |

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