जब वो आई...
वो सामने से गुज़र गयी, ऐसे लगा जैसे कोई ख्वाब
था. सामने आकर ज़रा ठहर सी गयी. मेरे अँधेरे से भरे दिल मैं चिंगारियां फूटने लगीं.
ऐसा लगा जैसे में एक अँधेरे कुवें में बरसों से पड़ा हूँ वो मेरे सामने एक रौशनी कि
किरण है. डर सा लग रहा था. समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या है.
क्या वो रौशनी सच में है या फिर वो अँधेरे का ही
दूसरा रूप है. मन में इतना कालापन था कि सफ़ेद रंगों से डर लगने लगा था.
वो चली गयी पर मैं एक बेचारे पतंगे कि तरह उसकी
लौ की तरफ खींचता चला गया. ऐसा कभी नहीं लगा मुझे. आज क्या बात थी? उसमे क्या बात
थी? बहत कोशिश करी कि इन बढ़ते कदमो को रोक लूँ, आगे कुछ नहीं बस निराशा ही हाथ
लगेगी पर इन नादान क़दमों ने मेरी सुननी बंद कर दी थी.
इन आँखों का तो हाल ही न पूछो कि इन्हें क्या
हुआ. रौशनी कि चकाचोंध इतनी थी कि कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था.
सुना था कि अँधेरे में ही रौशनी सबसे ज्यादा
चमकती है. यकीन हो गया था कि वो रौशनी मेरे काले दिल के लिए है. चला तो जा रहा था मैं
उसकी तरफ खिंचा हुआ पर मन में एक अनजान डर बैठ गया.
कहीं मेरा अँधेरा उसकी रौशनी को भी निगल गया तो?
मुझे सांस आना बंद हो गयी. इस अनजान के लिए मेरे मन में इतना खौफ पैदा हो गया कि
कहीं मेरा साया ही उस से उसकी रौशनी न छीन ले?
नहीं! अपनी जीवन में जितनी भी शक्ति मैंने जमा
कि थी उस बल से मैंने अपने पैरों को रोका. आँखों को अपनी हथेलिओं से ढक लिया.
अँधेरे कि तरफ ऐसी छलांग लगायी कि आँखों को याद ही न रहे कि रौशनी वहां थी.
आंखें खोली तो जो सोचा था वोही निकला. मैं फिर
उस अँधेरे कुवें में पड़ा था और हर वक़्त प्यासा. सब जाना पहचाना था. साँसें भी सही
रफ़्तार से चल रही थीं.
पर कुछ अजीब था. प्यास कुछ कम थी, अँधेरा कुछ
प्यारा था. ये क्या हो गया मुझे? ये रौशनी फिर कहाँ से आगई? वो तो पास में नहीं है
अब. फिर?